आज दसलक्षण धर्म के नवमे दिन उत्तम अकिंचन्य धर्म पर सभी जैन मंदिर जी में भगवान जी का अभिषेक एवं शान्तिधारा की गयी
*उत्तम अकिंचन्य धर्म पर पूज्य माताजी ने प्रवचन हुए कहा कि पर पदार्थ से भिन्न निजातम स्वरुप की उपलब्धि होना उत्तम आकिंचन्य धर्म है।*“उत्तम अकिंचन’ यानी आत्मकेंद्रित करना :-…..आकिचन्य धर्म आत्मा की उस दशा का नाम है जहां पर बाहरी सब छूट जाता है किंतु आंतरिक संकल्प विकल्पों की परिणति को भी विश्राम मिल जाता है। बाहरी परित्याग के बाद भी मन में ‘मैं’ और ‘मेरे पन’ का भाव निरंतर चलता रहता है, जिससे आत्मा बोझिल होती है और मुक्ति की ऊर्ध्वगामी यात्रा नहीं कर पाती।
जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के लिए हमें भार रहित हल्का होना जरूरी होता है उसी प्रकार सिद्धालय की पवित्र ऊंचाइयां पाने के लिए हमें अकिंचन, एकदम खाली होना आवश्यक है। यह आत्मा,संकल्प, विकल्प रूप कर्तव्य भावों से संसार सागर में डूबती रहती है।
परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही अकिंचन धर्म की भावधारा है।……इसके पश्चात पूज्य आर्यिका आनंदमति माताजी एवं पूज्य क्षुल्लकरत्न समर्पण सागर जी महाराज के मंगल सानिध्य मे रंगारंग संस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्रीमति ममलेश जैन का उत्सव समिति द्वारा स्वागत किया गया इसके पश्चात श्रीमति वीना जैन के द्वारा दीप प्रज्वलन किया गया।
दस लक्षण महापर्व पर सांध्यकालीन कार्यक्रमों की श्रृंखला में आज महिला जैन मिलन “राजुल” द्वारा “नेमी का वैराग्य” धार्मिक नाटिका का आयोजन किया गया।…..भगवान नेमिनाथ अरिष्टनेमि वर के वेश में अति आकर्षक लग रहे थे तो राजुल भी वधु के वेश में सौंदर्य की मूरत लग रही थी. सजे धजे अरिष्टनेमि, गाजे बाजे के साथ चल पड़े. वधु के घर तक पहुँचने से पहले राह में कहीं पशुओं का आर्त क्रंदन सुनाई दिया। वहीँ रुक गए। रथवान से पूछा। पूछने पर उन्हें बताया गया कि उनके विवाह के उपलक्ष्य में जो भोज रखा गया है, वे सभी पशु उसमे पकाये जायेंगे।…….रथवान को रथ को बाड़े ले चलने का आदेश दिया। बाराती इस अचानक हुई घटना पर अचंभित हो गए. अरिष्टनेमि जब बाड़े में पहुंचे तो देखा कि पशु लौह कड़ियों से बंदी बना बाँध कर रखे गए थे. किसी की गर्दन तो किसी के पैर बेड़िया थी. मृत्यु का भय उनकी आँखों में था. चीत्कार और क्रंदन वातावरण को चीर दे रहा था…….दौड़ के उस पशुओं के बाड़े में जा पहुंचे। निरीह पशुओं की मूक आँखों से दया की प्रार्थना अरिष्टनेमि के ह्रदय तक जा पहुंची। इस क्रंदन से उनका छुपा वैराग्य और विरक्त भाव प्रबल हो……..उठा. विचार उठा मन में – “जीवन दुःख है किन्तु जीवेषणा इतनी प्रबल है कि जीव फिर भी अपने आप को उसी छल में लिप्त रखता है, सुख की आस में असंख्य दुःख सहता है.’ “…….एक क्षण में ह्रदय परिवर्तित हो गया। पिछले भवों की संचित ज्ञान की पूंजी थी जो अब एक क्षण में धधक कर चैतन्य हो गई। द्रवित होकर सभी पशुओं को उन्होंने मुक्त कर दिया और रथ को पुनः अपने घर की ओर मोड़ दिया।
राजा समुद्रविजय और रानी शिवादेवी ने आशंकित होते हुए अरिष्टनेमि से पूछा- “रथ क्यों लौटा दिया पुत्र ? ” “……..अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया- ” जैसे ये पशु बंधनों से जकड़े हुए थे, मनुष्य भी अपने कर्मों के बंधनों से जकड़ा हुआ है और बंधन कितना पीड़ादायक है ये अभी मैंने देखा। जैसे उन पशुओं को इस कोठरी से मुक्ति मिल गयी, मैं भी काल – कोठरी से अपनी मुक्ति की राह ढूंढूंगा।”
और वह मोक्ष की राह पर वैराग्य को प्राप्त हुए.
कार्यक्रम के अंत में सभी भाव विभोर हो गए और कार्यक्रम की भूरे भूरे शब्दों में सभी ने प्रशंसा की……..कार्यक्रम मे संस्था की अध्यक्षा श्रीमती अलका जैन, मंत्री सुप्रिया जैन, कोषाध्यक्ष अनुपमा जैन, संरक्षिका श्रीमति शेफाली जैन, प्रियंका जैन, महेन्द्र जैन, आदि बड़ी संख्या मे समाज के महानुभाव उपस्थित रहे।
मधु जैन…..मीडिया संयोजक