देहरादून
गढ़वाल में ब्राह्मण जातियां मूल रूप से तीन हिस्सो में बांटी गई है -1-सरोला, 2-गंगाड़ी 3-नाना । सरोला और गंगाड़ी 8 वीं और 9वीं शताब्दी के दौरान मैदानी भाग से उत्तराखंड आए थे। पंवार शासक के राजपुरोहित के रूप में सरोला आये थे। गढ़वाल में आने के बाद सरोला और गंगाड़ी लोगों ने नाना गोत्र के ब्राह्मणों से शादी की। सरोला ब्राह्मण के द्वारा बनाया गया भोजन सब लोग खा लेते है परंतु गंगाड़ी जाती का अधिकार केवल अपने सगे-सम्बन्धियो तक ही सिमित है।
- नौटियाल
700 साल पहले टिहरी से आकर तली चांदपुर में नौटी गाव में आकर बस गए !
आप के आदि पुरष है नीलकंठ और देविदया, जो गौर ब्राहमण है।।
नौटियाल चांदपुर गढ़ी के राजा कनकपाल के साथ सम्वत 945 मै धर मालवा से आकर यहाँ बसी, इनके बसने के स्थान का नाम गोदी था जो बाद मैं नौटी नाम मैं परिवर्तित हो गया और यही से ये जाती नौटियाल नाम से प्रसिद हुई। - डोभाल
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा गंगाडी ब्राह्मणों मैं डोभाल जाती सम्वत 945 मै संतोली कर्नाटक से आई मूलतः कान्यकुब्ज ब्रह्मण जाती थी।
मूल पुरुष कर्णजीत डोभा गाँव मैं बसने से डोभाल कहलाये।
गढ़वाल के पुराने राजपरिवार मैं भी इस जाती के लोग उचे पदों पे भी रहे है .
ये चोथोकी जातीय सरोलाओ की बराथोकी जातियों के सम्कक्ष थी जो नवी दसवी सदी के आसपास आई और चोथोकी कहलाई - रतूड़ी
सरोला जाती की प्रमुख जाती रतूडी मूलत अद्यागौड़ ब्रह्मण है, जो गौड़ देश से सम्वत 980 मैं आये थे।
इनके मुल्पुरुष सत्यानन्द, राजबल सीला पट्टी के चांदपुर के समीप रतुडा गाँव मैं बसे थे और यही से ये रतूडी नाम से प्रसिद हुए।
इस जाती के लोगो का भी गढ़वाल नरेशों पर दबदबा लम्बे समय तक बरकरार रहा था।
गढ़वाल का सर्व प्रथम प्रमाणिक इतिहास लिखने का श्रेय इसी जाती के युग पुरुष टिहरी राजदरबार के वजीर पंडित हरीकृषण रतूडी को जाता है।
रतुडा मैं माँ भगवती चण्डिका का प्रसिद्ध थान भी है। - गैरोलाः
गैरोला लोगों का पैत्रिक गाव चांदपुर तैल पट्टी है।
इनके आदि पुरुष जयानन्द विजयानन्द हैं। ये 972 में गैरोली गांव में बसे थे। इनकी पूर्व जाति आद्यगौड़ है। - डिमरी
आप दक्षिण से आकर पट्टी तली चांदपुर दिमार गाव में आकर बस गए !
आप द्रविड़ ब्राह्मन है।। - थपलियाल
आप 1100 साल पहीले पट्टी सीली चांदपुर के ग्राम थापली में आकर बस गए।
आप के आदी पुरुष जैचानद माईचंद और जैपाल, जो गौर ब्राहमण है।।
गढ़वाली ब्राह्मणों की बेहद खास जाती जिनकी आराध्य माँ ज्वाल्पा है।
इस जाती के विद्वानों की धाक चांदपुर गढ़ी, देवलगढ़ , श्रीनगर, और टिहरी राजदरबार मैं बराबर बनी रही थी।
थपलियाल अद्यागौड़ है जो गौड देश से सम्वत 980 में थापली गाँव में बसे और इसी नाम से उनकी जाती संज्ञा थपलियाल हुई।
ये जाती भी गढ़वाल के मूल बराथोकी सरोलाओ मैं से एक है।
नागपुर मैं थाला थपलियाल जाती का प्रसिद गाँव है, जहा के विद्वान आयुर्वेद के बडे सिद्ध ब्राह्मण थे।
- बिजल्वाण
आपके आदि पुरूष है बीजो/ बिज्जू। इन्ही के नाम पर ही इनकी जाती संज्ञा बिज्ल्वान हुई।
गढ़वाल की सरोला जाती मैं बिज्ल्वान एक प्रमुख जाती सज्ञा है, इनकी पूर्व जाती गौड़ थी जी 1100 के आसपास गढ़वाल के चांदपुर परगने मैं आई थी, और इस जाती का मूल स्थान वीरभूमि बंगाल मैं है।। - लखेड़ा
लगभग 1000 साल पहले कोलकत्ता के वीरभूमि से आकर उत्तराखंड में बसे।
उत्तराखंड के लगभग 70 गांवों में फैले लखेड़ा लोग एक ही पुरूष श्रद्धेय भानुवीर नारद जी की संतानें हैं।
ये सरोला ब्राह्मण है।। - बहुगुणा
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा गंगाडी ब्राह्मणों में बहुगुणा जाती सम्वत 980 में गौड़ बंगाल से आई मूलतः अद्यागौड़ जाती थी। - कोठियाल
सरोला जाती की यह एक प्रमुख शाखा है, जो चांदपुर मैं कोटी गाँव मैं आकर बसी थी और यहाँ बसने से ही कोठियाल जाती नाम से प्रसिद हुई।
इनकी मूल जाती गौड़ है।
चांदपुर गढ़ी के राजपरिवार द्वारा बाद मैं कोटी को सरोला मान्यता प्रदान की गयी थी। इस जाती के अधिकार क्षेत्र मैं बद्रीनाथ मंदिर की पूजा व्यवस्था मैं हक हकूक भी शामिल है। - उनियाल
839 इ. पू. जयानंद और विजयानंद नाम के दो चचेरे भाई (ओझा और झा) दरभंगा (मगध-बिहार) से श्रीनगर,गढ़वाल में आये। वो मैथली ब्राह्मण थे।
प्रसिद्ध कवि विद्यापति और राजनीतिज्ञ ध् अर्थशास्त्री चाणक्य (कौटिल्य) उनके पूर्वजों में से एक थे।
उन्हें ष्ओनीष् में जागिर दी गई थी, इसलिए ओझा और झा (दो अलग गोत्र – कश्यप और भारद्वाज) को एक जाति ओनियाल में बनी, जो बाद में उनियाल बन गई।
माता भगवती सभी यूनियाल, ओजा, झा और द्रविड़ ब्राह्मणों के कुलदेवी हैं।
- पैनुली/पैन्यूली
पैनुली/ पैन्यूली मूलतः गौड़ ब्रह्मण है।
दक्षिन भारत से 1207 में मूल पुरुष ब्र्ह्मनाथ द्वारा पन्याला गाँव रमोली मैं बसने से इस जाती का नाम पैनुली ध् पैन्यूली प्रसिद हुआ।
इस जाती के कई लोग श्रीनगर राजदरबार और टिहरी मैं उच्च पदों पर आसीन हुए।
इस जाती के श्री परिपुरणा नन्द पैन्यूली 1971-1976 मैं टिहरी गढ़वाल के संसद भी रहे है। - ढौंडियाल
गढ़वाल नरेश राजा महिपती शाह द्वारा 14 और 15 वी सदी मैं चोथोकी वर्ग मैं वृद्धि करते हुए 32 अन्य जातियों को इस वर्ग मैं सामिल किया था जिनमे ढौंडियाल प्रमुख जाती थी।
इस जाती के मूल पुरुष गौड़ जाती के ब्राहमण थे जो राजपुताना से गढ़वाल सम्वत 1713 मैं गढ़वाल आये थे।
मूल पुरुष पंडित रूपचंद द्वारा ढोण्ड गाँव बसाया गया था, जिस कारण इन्हें ढौंडियाल कहा गया। - नौडियाल
मूलतः गढ़वाली गंगाडी ब्रह्मण जिनकी पूर्व जाती संज्ञा गौड़ थी।
मूल स्थान भृंग चिरंग से सम्वत 1543 में आये पंडित शशिधर द्वारा नोडी गाँव बसाया गया था।
नोडी गाँव के नाम पर ही इस जाती को नौडियाल कहा गया। - पोखरियाल
मूलतः गौड़ ब्रह्मण है इनकी पूर्व जाती सज्ञा विल्हित थी जो संवत 1678 में विलहित से आने के कारण हुई।
इस जाती के मूल पुरुष जो पहले विलहित और बाद मैं पोखरी गाँव जिला पौडी गढ़वाल म बसने से पोखरियाल प्रसिद हुए।
इस जाती नाम की कुछ ब्रह्मण जातीय हिन्दू राष्ट्र नेपाल मैं भी है जो प्रसिद शिव मंदिर पशुपति नाथ मैं पूजाधिकारी भी है।
ये जाती गढ़वाल मैं पौडी के अतिरिक्त चमोली मैं भी बसी हुई है , टेहरी मैं इसी जाती नाम से राजपूत जाती भी है, जो सम्भवतः किसी पुराने गढ़ के कारण पड़ी हुई हो। - सकलानी
गढ़वाल नरेशों द्वारा मुआफी के हकघ्दार भारद्वाज कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की यह शाखा सम्वत 1700 के आसपास अवध से सकलाना गाँव मैं बसी।
इनके मूल पुरुष नाग देव ने सकलाना गाँव बसाया था, बाद मैं इस जाती के नाम पर इस पट्टी का नाम सकलाना पड़ा।
राज पुरोहितो की यह जाती अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारन राजा द्वारा विशेष सुविधाओ से आरक्षित किये गये थे और जागीरदारी भी प्रदान की गयी।
- चमोली
मूल रूप से दरविड़ ब्राह्मण है जो रामनाथ विल्हित से 924 में आकर गढ़वाल के चांदपुर परगने मै चमोली गाँव में बसे।
सरोलाओ की एक पर्मुख जाती जो मूल रूप से चमोली गाँव में बसने से अस्तित्व में आई थी जिसे पंडित धरनी धर, हरमी, विरमी ने बसाया था और गाँव के नाम पर ही ये जाती चमोली कहलाई।
ये जाती सरोलाओ के सुपरसिद बारह थोकि में से एक प्रमुख है जो नंदा देवी राजजात में प्रमुख भूमिका निभाती है। - काला
गढ़वाल की यह वह प्रसिद जाती है जिसने आजादी के बाद सबसे अछि प्रगति की है।
इस जाती मैं अभी तक सबसे अधिक प्रथम श्रेणी के अधिकार मोजूद है।
सुमाडी इस जाती का सबसे अधिक प्रसिद गाँव है.जहा के ष्पन्थ्या दादा एक महान इतिहास पुरुष हुए है। - पांथरी
मूलतः सारस्वत ब्राहमण जो सम्वत 1543 में जालन्धर से आकर गढ़वाल मैं पंथर गाँव मैं बसे और पांथरी जाती नाम से प्रसिद हुए।
इस जाती के मूल पुरुष अन्थु पन्थराम ने ही पंथर गाँव बसाया था। - खंडूरी/ खंडूड़ी
सरोलाओ की बारह थोकी जातियों मैं से एक खंडूरी मूलतः गौड़ ब्रह्मण है, जिनका आगमन सम्वत 945 में वीरभूमि बंगाल से हुआ।
इनके मूल पुरुष सारन्धर एवं महेश्वर खंडूड़ी गाँव मैं बसे और खंडूड़ी जाती नाम से प्रसिद हुए।
इस जाती के अनेक वंसज गढ़वाल राज्य मैं दीवान एवं कानूनगो के पदों पर भी रहे।
बाद में राजा द्वारा इन्हें थोक्दारी दे कर गढ़वाल के विभिन्न गाँव को जागीर मैं दे दिया था। - सती
गढ़वाल की सरोला जाती मैं से एक सती गुजरात से आई ब्रह्मण जाती है, जो चांदपुर गाधी के सशको के निमंत्रण पर चांदपुर और कपीरी पट्टी मैं बसी थी।
इस जाती की एक सखा नोनीध् नवानी भी है।
इस जाती नाम के ब्राहमण गढ़वाल के कई कोनो मैं फले है, यहाँ तक की इस जाती के कुछ ब्राहमण कुमायु मैं भी है। - कंडवाल
मूलतः सरोला जाती है जो कांडा गाँव मैं बसने से कंडवाल कहलाई है।
गढ़वाल के इतिहास मैं क्रमांक 19 से 26 तक की कुल आठ जातीय सरोला सूचि मैं सामिल की गयी है जिनमे कंडवाल जाती भी है।
कंडवाल जाती मूलतः कुमयुनी जाती है। जो कांडई नामक गाँव से यहाँ चांदपुर मैं सबसे पहले आकर बसी थी, जिनके मुल्पुरुष का नाम आग्मानंद था। नागपुर की एक प्रसिद जाती कांडपाल भी इससे अपना सम्बन्ध बताती है। जिनके अनुसार ( कांडपाल) का मूल गाँव कांडई आज भी अल्मोडा मैं है जहा के ये मूलतः कान्यकुब्ज (भारद्वाज गोत्री) कांडपाल वंसज है।
यही कुमायु से सन 1343 में श्रीकंठ नाम के विद्वान से निगमानंद और आगमानद ने कांडपाल वंश को यहाँ बसाया था, जिनमे से एक भाई चांदपुर में बस गया और राजा द्वारा इन्हें ही सरोला मान्यता प्रदान कर दी गयी और चांदपुर में ये लोग कंडवाल नाम से प्रसिद हुए।
इसी जाती के दुसरे स्कन्ध में से निगमानद ने 1400 में कांडई गाँव बसाया था, कांडई में बसने से इन्हें कंडयाल भी कहा गया, जो बाद मैं अपने मूल जाती नाम कांडपाल से प्रसिद हुआ। - ममगाईं
मूलतः गौड़ ब्रह्मण है जो उज्जैन से आकर मामा के गाँव मैं बसने से ममगाईं कहलाये थे।
ये जाती मूलतः पौडी जिले की है लेकिन टिहरी और उत्तरकाशी और रुद्र्पर्याग जिले मैं भी इस जाती के गाँव बसे है।
महाराष्ट्र मूल के होने से वाह भी इस जाती के कुछ लोग रहते है। नागपुर मैं भी इस जाती के कुछ परिवार बसे है, जिनके रिश्ते नाते टिहरी और श्रीनगर के ब्राह्मणों से होते है।
- भट्ट
भट्ट सामन्यता एक विशेष जाती संज्ञा है जिसका आशय प्रसिदी और विद्वता से है।
सामान्यतः ये एक प्रकार की उपाधि थी जो राजाओ द्वारा प्रदत होती थी, गढ़वाल की अन्य जाती सज्ञाओ के अनुरूप ये उपाधि भी बाद में जातिनाम में बदल गयी, कुछ लोग इनका मूल भट्ट ही मानते है।
गढ़वाल मैं भट्ट जाती सबसे अधिक प्रसार वाली जाती संज्ञा है। ये सभी स्वयं को दक्षिन वंशी मानते है।
कालांतर में इनमे से अनेक ने आपने नए जाती नाम भी रखे है, भट्ट ही एक मात्र जाती है जो गढ़वाल में सरोला सूचि, गागाड़ी सूचि और नागपुरी सूची में शामिल की गयी है। - पन्त
भारद्वाज गोत्रीय ब्राहमण है, जिनके मूल पुरुष जयदेव पन्त का कोकण महाराष्ट्र से 10 वी सदी में चंद राजाओ के साथ कुमाऊँ में आगमन हुआ।
इनके वंसज शर्मा श्रीनाथ नाथू एवं भावदास के नाम भी चार थोको मैं विभाजित हुए, ये ही बाद में मूल कुमाउनी ब्राह्मण जाती पन्त हुई।
बाद मैं अल्मोडा, उप्रडा, कुंलता, बरसायत, बड़ाउ, म्लेरा में बसे शर्मा पन्त, श्रीनाथ पन्त, परासरी पन्त, और हटवाल पन्त, प्रमुख फाट बने।
ये सभी कुमाउनी पन्त थे, बाद में इसी जाती के कुछ परिवार गढ़वाल के विभिन्न इलाको में बसे, विद्वान और ज्योतिष के क्षेत्र मैं उलेखनीय कार्यो ने यहाँ भी इन्हें उच्च स्तर तक पहुचा दिया।
पन्त जाती का नागपुर में प्रसिद गाँव कुणजेटी है। ये नागपुर के 24 मठ मंदिरों मैं आचार्य वरण के अधिकारी है। - बर्थवालध्बड़थ्वाल
मूलतः सारस्वत ब्राहमण है, जो संवत 1543 में गुजरात से आकर गढ़वाल में बसे।
इस जाती के मूल पुरुष पंडित सूर्य कमल मुरारी, बेड्थ नामक गाँव में बसे और बाद मैं जिनके वंसज बर्थवालध्बड़थ्वाल जाती नाम से प्रसिद हुए। - कुकरेती
मूलतः द्रविड़ ब्रह्मण है, जो विल्हित नामक स्थान से आकर सम्वत 1352 में गढ़वाल मैं आये थे।
इनके मुल्पुरुष गुरुपती कुकरकाटा गाँव मैं बसे थे, यही से कुकरेती नाम से प्रसिद हुए। - अन्थ्वाल
मूलतः सारस्वत ब्रह्मण.संवत 1555 में पंजाब से गढ़वाल में आगमन हुआ।
मूल पुरुष पंडित रामदेव अणेथ गाँव पौडी जिले मैं बसे, यही से इनकी जाती संज्ञा अन्थ्वालध् अणथ्वाल हुई। इसी जाती के भै-बंध वर्तमान में श्री ज्वाल्पा धाम में भी ब्रह्मण है।
नागपुर में ऋषि जमदग्नि के प्रसिद गाँव जामु में भी अन्थ्वालध् अणथ्वाल जाती के लोग रहते है।
अन्थ्वालध् अणथ्वाल जाती मूलतः गंधार अफगानिस्तान से आई ब्राह्मणों की पुराणी जाती है। .इसी दौर में इरान अफगानिस्तान से आई अनेक ब्रह्मण जातियों मैं मग जाती के ब्रह्मण के साथ ये भी थे।
अन्थ्वाल/अणथ्वाल नाम की एक जाती लाहौर वर्तमान पाकिस्तान में भी रहती है, जो वहा के हिन्दू मंदिरों की पूजा सम्पन्न भी कराते है। - बेंजवाल
बेंजी गाँव अगस्त्यमुनि से मन्दाकिनी के वाम परश्वा पर लगभग 3 किलोमीटर की खड़ी चढाई के बाद यह गाँव आता है। बेंजी शब्द विजयजित का अपभ्रंस है जिसका आशय विजय से था।
बीजमठ महाराष्ट्र से आये मूलतः कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का यहाँ गाँव 11 वी सदी के आस पास बसा था, जिनके मूल पुरुष का नाम पंडित देवसपति था, जो की मुनि अगस्त्य के पुराने आश्रम पुरानादेवल के पास बामनकोटि मैं बसे थे।
यही से भगवान अगस्त्य की समस्त पूजा अधिकार इस जाती के पास सम्मिलित हुए। जिसके प्रमाण में इस जाती के पास भगवान अगस्त्य से जुडा प्राचीन अगस्त्य कवच मजूद है।
बामनकोटि से से पंडित देवसपति के वंसज किर्तदेव और बामदेव ने बेंजी गाँव को बसाया था। बेंजी के नाम पर इन्हें बिजालध्बेंजवाल कहा गया।
प्रसिद इतिहासकार एटकिन्सन ने हिमालयन गजेटियर मैं इस जाती वर्णन किया है। बेंजी गाँव के नाम पर ही इनकी जाती संज्ञा बेंजवाल हुई, ये ब्राहमण वंसज अगस्त्य ऋषि के साथ आये 64 गोत्रीय ब्राह्मणों मैं से एक थे। साथ ही भगवान अगस्त्य से जुड़े 24 प्रमुख मंदिरों मैं ये पूरब चरण के अधिकारी है ब्रह्मण भी है।
- पुरोहित
पुरोहितों का आगमन 1663 में जम्मू कश्मीर से हुआ था। ये जम्मू कश्मीर राजपरिवार के कुल पुरोहित थे। राजा के यहाँ पोरिह्त्य कार्य करने से पुरोहित नाम से प्रसिद हुए।
इनके पहले गाँव दसोली कोठा बधाण बसे, जहा से बाद में 1750 में ये नागपुर पट्टी में भी बसे। - नैथानी
मूलरूप से कान्यकुब्ज ब्राह्मण है जो की सम्वत 1200 कन्नौज से गढ़वाल में आये।
आपके मूलपुरुष कर्णदेव, इंद्रपाल नैथाना गाँव, गढ़वाल में आकर बसे। श्री भुवनेश्वरी सिद्धपीठ (मन्दिर) का प्रबन्ध एवं व्यवस्था नैथानी जाति के लोग देखते हैं। - सेमवालः इनके मूलपुरुष प्रभाकर, निरंजन सेमगांव में बसे थे। इनकी पूर्व जाति आद्य गौड़ है। ये वीरभूम से हैं जो कि 980 में सेमगांव आकर बसे थे।🚩🙏🫡
- ड्योडीः इनके मूलपुरुष ड्योडगांव में बसे थे।
- घिल्ड़ियालः इनकी पूर्व जाति आद्यगौड़ है। ये गौड़ देश से 1100 सम्वत में आए। इनके मूलपुरुष लुत्थमदेव, गंगदेव घिल्डी गांव में बसे थे।
- जुयालः इनकी पूर्व जाति महाराष्ट्र है। ये कन्नौज से 1700 सम्वत में आए थे। इनके मूलपुरुष बसुदेव, विजयानंद जूया गांव में बसे थे।
- जोशीः इनकी पूर्व जाति द्रविड़ है। ये कुमांऊ से सम्वत 1700 में आए।
- चंदोलाः इनकी पूर्व जाति सारस्वत है। ये चंदोसी से सम्वत 1633 में आए। इनके मूलपुरुष लूथराज पंजाब से चंदोसी में बसे, वहां से गढ़वाल में बसे।
- धस्माणाः इनकी पूर्व जाति गौड़ है। ये उज्जैन से 1723 में आए। इनके मूलपुरुष हरदेव, वीरदेव, माधोदास धस्मण गांव में बसे थे।
- कैंथोलाः इनकी पूर्व जाति गुजराती भट्ट है। ये गुजरात से 1669 सम्वत में आए। इनके मूलपुरुष राम कैंथोली गांव में बसे थे।
- कोटनालाः इनकी पूर्व जाति गौड़ है। ये बंगाल से सम्वत 1725 में आए। कोटी गांव में बसे।
- बडोनीः इनकी पूर्व जाति गौड़ है। ये बंगाल से सम्वत 1500 में आए। ये बडोन गांव में बसे।
- कुडियालः इनकी पूर्व जाति गौड़ है। ये सम्वत 1600 में बंगाल से आए और कूड़ी गांव में बसे।
- बौड़ाईः ये गौड़ वंश के हैं और सम्वत 1500 में आए व बौधर या बौर गांव में बस गए।
- सिलवालः ये द्रविड़ वंश के हैं और सम्वत 1600 में बनारस से आकर यहां सिल्ला गांव में बसे।
- गोदुड़ाः इनकी पूर्व जाति भट्ट थी, ये सम्वत 1718 में दक्षिण से आकर यहां बसे, इनके मूलपुरुष गोदू हैं।
- बिंजोलाः इनकी पूर्व जाति द्राविड़ है।
- मैकोटीः ये कान्यकुब्ज वंश के हैं। सम्वत 1622 में कन्नौज से आकर मैकोटी गांव में बसे।
- कौंस्वालः ये सम्वत 1722 में यहां आए और कंस्याली गांव में बसे।
- मलासीः ये गौड़ वंश के हैं और मलासू गांव में आकर बसे।
- सुयालः इनके मूलपुरुष दजल हैं, ये बाज नारायण सूई गांव में बसे थे।
- बंगवालः ये गौड़ वंश के हैं। सम्वत 1725 में ये मध्यप्रदेश से आए। ये यहां बांगा गांव में बसे।
- देवराणीः इनकी पूर्व जाति भट्ट है। ये गुजरात से सम्वत 1500 में यहां आए।
- मडवालः ये द्वाराहाट कुमांऊ से सम्वत 1700 में यहां आए। इनके मूलपुरुष राजदास महड़ गांव में आकर बसे थे।
- बौखंडीः ये महाराष्ट्र विलहित से सम्वत 1700 में यहां आए। यह अपने को भुकुण्ड कवि की औलाद बतलाते हैं।
- घणसालाः इनकी पूर्व जाति गौड़ है। ये सम्वत 1600 में गुजरात से आए। ये मूल से मग्नदेव घणसाली गांव में बसे थे।
- पोखरियालः इनकी पूर्व जाति विल्वल है। ये सम्वत 1678 में विलहित से यहां आए। इनके मूलपुरुष गुरुसेन पोखरी गांव में आकर बसे थे।
- बलोदीः ये दविड़ वंश के हैं। ये सम्वत 1400 में दक्षिण से आए। ये यहां बलोद गांव में बसे जिससे बलोदी कहलाए।
- कलसीः ये भट्ट वंश के हैं। सम्वत 1300 में गुजरात से आकर यहां बसे।
- सुंद्रयालः ये सम्वत 1711 में यहां आए। ये कर्नाटक वंश के हैं। सुन्द्रोली गांव में आकर बसने से सुंद्रयाल कहलाए।
- डबरालः ये महाराष्ट्र वंश के हैं। सम्वत 1433 में दक्षिण से आकर यहां बसे। इनके मूलपुरुष रघुनाथ विश्वनाथ डाबर गांव में बसे थे।
- किमोटीः ये गौड़ वंश के हैं। सम्वत 1617 में बंगाल से आकर यहां बसे। इनके मूलपुरुष रामभजन किमोटा गांव में बसे थे।
- कुठारी, कोठारीः ये शुक्ल वंश के हैं। सम्वत 1791 में बंगाल से आकर यहां बसे। इनके मूलपुरुष कुमारदेव कोठार गांव में आकर बसे थे।
- बडोलाः ये गौड़ वंश के हैं। सम्वत 1798 में उज्जैन से आकर यहां बसे। इनके मूलपुरुष उज्जल बडोली गांव में बसे थे।
- पांथरीः ये सारस्वत वंश के हैं। सम्वत 1600 में जालंधर से आकर यहां बसे। इनके मूलपुरुष अन्थू, पंथराम पांथर गांव में बसे थे।
- पुरोहितः यह खजीरी वंश के हैं। सम्वत 1813 में जम्मू से आकर यहां बसे। ये पुराहिताई करने से पुरोहित कहलाए।
- बिंजोलाः ये द्रविड़ वंश के हैं।
- कुड़ियालः ये गौड़ वंश के है। सम्वत 1600 में बंगाल से आए। ये कूड़ी गांव में बसने के कारण कुड़ियाल कहलाए।
- भट्टः ये भट्ट वंश के हैं जो कि दक्षिण से आए।
- फरासीः ये द्रविड़ वंश के हैं। सम्वत 1791 में दक्षिण से आए और फरासू गांव में बसे।
- गोदूडाः ये भट्ट वंश के हैं। सम्वत 1718 में दक्षिण से आए। ये मूलपुरुष गोदू के नाम से गोदूडा कहलाए।
- भदोलाः ये द्राविड वंश के हैं।
- मुसडाः ये गौड़ वंश के हैं। बंगाल से आए। मूलपुरुष भागदेव मुसड़ गांव में बसे।
- सिल्वालः ये द्राविड वंश के हैं। बनारस से आए और यहां सिल्ला गांव में बसे।
- बौड़ाईः ये गौड़ वंश के हैं। सम्वत 1500 में आए। बौधर या बौर गांव में बसे।
- मैकोटीः कान्यकुब्ज वंश के हैं। सम्वत 1622 में कन्नौज से आए। मैकोटी गांव में बसने से मैकोटी कहलाए।
- बदाणीः ये कान्यकुब्ज वंश के हैं। सम्वत 1722 में कन्नौज से आए। बधाण परगने में बसने से बदाणी कहलाए।
- कौंसवालः ये सम्वत 1722 में यहां आए। कंस्याली गांव में बसने से कौंसवाल कहलाए।
- जुगड़ाणः ये पांडे वंश के हैं। कुमाॅऊ से सम्वत 1700 में आए और यहां जुगड़ी गांव में बसे।