डॉक्टर पतीराम परमार
कुशल चिकित्सक तथा सफल प्रशासक डॉ पातीराम परमार का जन्म 13 मार्च सन 1854 को जिला चमोली के चंद्रशिला खदेड़ पट्टी के डूंगर गांव में हुआ था ,इनके पिता खेती-बाड़ी का कार्य करते थे अपने अध्यवसाय से छात्रवृत्ति प्राप्त करने के बाद मिशन स्कूल चोपड़ा से इन्होंने अंग्रेजी मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की और मेरठ के मिलिट्री मेडिकल कपिल क्लास में भर्ती हो गए ,वहां की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्होंने टेंपल मेडिकल कॉलेज पटना की अंतिम परीक्षा सन 1979 में नाम वरी के साथ उत्तीर्ण की ।
. उसके बाद इन्हें 34 न’बर पुरबिया पलटन के अस्पताल में नियुक्त किया गया ,खिलौने कुछ समय के लिए नागा युद्ध में जाने का अवसर मिला ,सन 1984 में रूस अफगान सीमा निर्धारण कमीशन के साथ इन्हें नियुक्त किया गया गोसपाक पारे ने 26 माह तक कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ा ,1 दिनों की असाधारण प्रशंसनीय सेवाओं के कारण सन 18 सो 87 ईस्वी में इन्हें 3 दर्जो की एकदम तरक्की दे दी गई ,और रायबहादुर की उपाधि से विभूषित किया गया सन 18 सो 93 में यह कमांड इन चीप के अस्पताल में नियुक्त किए गए ,यद्यपि साधारणतया उस पद पर हिंदुस्तानी कमीशन मेडिकल अफसरों की अधिकतम 5 वर्षों तक ही नियुक्ति दी जाती थी ,पर इनकी लोकप्रियता और योग्यता के कारण यह 13 वर्ष तक इस पद पर रहे सन उन्नीस सौ एक में सम्राट एडवर्ल्ड अष्टम के राज्यारोहण के अवसर पर इन्हें भारतीय फौजी दल के साथ लंदन भेजा गया ,बस यात्रा में इन्हें 5 मार्च लगे और अच्छे अनुभव प्राप्त हुए वहां से लौटकर इन ए ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया सेकंड क्लास तथा बहादुर की उपाधि दी गई । कुछ वर्ष बाद इनकी प्रशंसनीय सेवाओं के लिए तीन पीढ़ियों तक ₹600 वार्षिक लगान कीजागीर प्रदान की गई और मार्च सन 1911 ईस्वी में 32 वर्ष सेवा के बाद इन्हें अवकाश दे दिया गया ।
पेंशन प्राप्त होने पर यह अपने गांव चले आए और शांति पूर्वक पुष्पावती पूर्व में निवास करने लगे इन्होंने करणप्रयाग में अंग्रेजी स्कूल स्थापित करने में भी सहायता दी और उस प्रबंध कारिणी के सदस्य चुने गए शासन मे भी इन्हें डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ऑफ सदस्य नामजद करने का अवसर मिला इसलिए 27 फरवरी सन 1912 में गढ़वाल यूनियन देहरादून ने इन्हें अपना मुख्य प्रधान चुना इसी बीच प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया और फिर फौजी सेवा के लिए बुला लिए गए सन 1919 तक इन्होंने आर्मी के मुख्य अस्पताल में काम किया वस्त्राल की सेवाओं के कारण इन्हें और नरी लेफ्टिनेंट का रेंट दे दिया गया तथा ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया के पदक के साथ सरदार बहादुर की उपाधि भी दी गई ,इस प्रकार सन 1920 में वे दोबारा अवकाश ग्रहण करके वापस घर आ गए यहां आकर अपनी लोकप्रियता के कारण यह सन 1925 में जिला बोर्ड के चेयरमैन निर्विरोध निर्वाचित हुए सन 1928 तक इन्होंने उस पद पर काम किया अपने कार्यकाल को इन्होंने अत्यधिक योग्यता और निष्पक्षता से निभाया ,कार्यकाल संभालते समय इन्होंने जला बोर्ड पर लगभग ₹84000 का कर्ज पाया आता इन्होंने बहुत सतर्कता और मित्रता से काम लिया यहां तक कि अपने बुढ़ापे के बावजूद इन्होंने लंबे लंबे दौरे और किसी प्रकार का भत्ता ग्रहण करके एक आदर्श प्रस्तुत किया अंत में इन्होंने अपने उत्तराधिकारी बोर्ड को बचत की आर्थिक स्थिति प्रदान की ,
. उपरोक्त कार्य के अतिरिक्त इन्होंने गढ़वाल एंड साइंस एंड मॉडल नाम से अंग्रेजी भाषा में प्राचीन तथा अर्वाचीन गढ़वाल पर एक पुस्तक लिखी इसका उद्देश्य गढ़वाल में अंग्रेजी राज्य प्रारंभ होने से शताब्दी समारोह को श्रद्धांजलि चढ़ाने का था । लेकिन उन्होंने उस पुस्तक में यहां का धार्मिक तथा ऐतिहासिक महत्व भूगोल जलवाए भूमि चंद्रमा तुतारी 1303 संस्थान तथा गार्डनर रेशों के क्रमागत इतिहास का भी वर्णन किया है ,उस पुस्तक को सन 1917 में शिमला के आर्मी प्रेस से छपा कर इन्होंने प्रकाशित किया था ।
जिला बोर्ड के चेयरमैन से निवृत होने के बाद उन्होंने शांति पूर्वक अपना शेष जीवन अपने गांव में बिताया,वही 16 जनवरी 1943 को इन्होंने प्रमुख की शरण में गमन किया ,इनके बड़े पुत्र श्री शालिग्राम सिंह परमार ने उस दिन पारी में वकालत की फिर सन 1918 में सीधे डिप्टी कलेक्टर नियुक्त हुए पर अक्टूबर सन 1930 में ही उनका देहांत हो गया ,दूसरे पुत्र हरीसिंह परमार पुलिस इंस्पेक्टर के पद से पेंशन पर आए थे ,,,,उन्हें कुख्यात डाकू सुल्ताना भाँतु को चतुर ता पूर्वक
पकड़ आने के उपलक्ष में किंग्स पुलिस मेडल प्रदान किया गया ! तीसरे पुत्र श्री प्रेम सिंह परमार भारतीय सचिवालय में वो के पद से सेवानिवृत्त हुए ।
प्रस्तुति डॉक्टर त्रयंबक सेमवाल